*श्रीशिवनिर्माल्य-निर्णय*
शिवनैवेद्य के विषय में शिवपुराणादि ग्रन्थों में विस्तार से निरूपण है, इसके पूर्व अनेक विशिष्ट विद्वान् भी विचार कर इस विषय में शास्त्रीय सिद्धान्त प्रकाशित कर चुके हैं तथापि कुछ लोग शास्त्रीय सिद्धान्त की अनभिज्ञता के कारण इस विषय में भ्रम में पड़े रहते हैं, इसलिये इस सम्बन्ध में यहाँ कुछ विचार किया जा रहा है।
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*शिवनैवेद्य-ग्रहण की प्रशंसा*
शिवपुराण - विद्येश्वरसंहिता के 22 वें अध्याय में शिव - नैवेद्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है -
*दृष्ट्वापि शिवनैवेद्यं यान्ति पापानि दूरतः।*
*भुक्ते तु शिवनैवेद्ये पुण्यान्यायान्ति कोटिशः।।*
*अलं यागसहस्रेणाप्यलं यागार्बुदैरपि।*
*भक्षिते शिवनैवेद्ये शिवसायुज्यमाप्नुयात्।।*
*आगतं शिवनैवेद्यं गृहीत्वा शिरसा मुदा।*
*भक्षणीयं प्रयत्नेन शिवस्मरणपूर्वकम्।।*
*न यस्य शिवनैवेद्यग्रहणेच्छा प्रजायते।*
*स पापिष्ठो गरिष्ठः स्यान्नरके यात्यपि ध्रुवम्।।*
*शिवदीक्षाऽन्वितो भक्तो महाप्रसादसंज्ञकम्।*
*सर्वेषामपि लिङ्गानां नैवेद्यं भक्षयेच्छुभम्।।*
| (शि. पु. विद्ये. सं. 22/4-5, 7, 9, 8)
अर्थात् - शिव के नैवेद्य को देख लेनेमात्र से भी सारे पाप दूर भाग जाते हैं, उसको खा लेने पर तो करोड़ों पुण्य अपने भीतर आ जाते हैं। सहस्र एवं अरब यज्ञ करने से क्या होगा जबकि शिव का नैवेद्य भक्षण करनेमात्र से शिव-सायुज्य की प्राप्ति होती है। आये हुए शिव-नैवेद्य को सिर झुकाकर प्रसन्नता के साथ ग्रहण करे और प्रयत्न करके शिव-स्मरणपूर्वक उसका भक्षण करे। जिसकी शिवनैवेद्य के ग्रहण में इच्छा नहीं होती, वह महापापी नरक को प्राप्त होता है। जिसने शिव की दीक्षा ली हो, उस शिवभक्त के लिये शिव-नैवेद्य अवश्य भक्षणीय है- ऐसा कहा जाता है। शिव की दीक्षा से युक्त शिवभक्त पुरुष के लिये सभी शिवलिंगों का नैवेद्य शुभ एवं ‘महाप्रसाद' है, अत: वह उसका अवश्य भक्षण करे। | इसी संहिता में आगे कहा गया है-
*अन्यदीक्षायुजांनऋणां शिवभक्तिरतात्मनाम्।*
*शृणुध्वं निर्णय प्रीत्या शिवनैवेद्यभक्षणे।।*
*शालग्रामोद्भवे लिङ्गे रसलिड्गे तथा द्विजाः।*
*पाषाणे राजते स्वर्ण सुरसिद्धप्रतिष्ठिते।।*
*काश्मीरे स्फाटिके रात्ने ज्योतिर्लिङ्गेषु सर्वशः।*
*चान्द्रायणसमं प्रोक्तं शम्भोनैवेद्यभक्षणम्।।*
*ब्रह्महापि शुचिर्भूत्वा निर्माल्यं यस्तु धारयेत्।*
*भक्षयित्वा द्रुतं तस्य सर्वपापं प्रणश्यति।।*
(शि. पु. विद्येश्वरसहिता -22/12 -15)
अर्थात् - जो अन्य देवताओं की दीक्षा से युक्त हैं और शिवभक्ति में भी मन को लगाये हुए हैं, उनके लिये शिवनैवेद्य - भक्षण के विषय में क्या निर्णय है-इसे आपलोग प्रेमपूर्वक सुनें। (सूतजी ऋषियों से कहते हैं) ब्राह्मणों! जहाँ से शालग्राम शिला की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न लिंग में, रस-लिंग (पारदलिंग) में, पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिंग में, देवताओं तथा सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित लिंग में, केसर निर्मित लिंग में, स्फटिकलिंग में, रत्ननिर्मित लिंग में तथा समस्त ज्योतिर्लिंगों में विराजमान भगवान् शिव के नैवेद्य का भक्षण चान्द्रायण-व्रत के समान पुण्यजनक है। ब्रह्महत्या करनेवाला पुरुष भी यदि पवित्र होकर शिवनिर्माल्य का भक्षण करके उसे (सिर पर) धारण करे तो उसका सारा पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
इन वाक्यों से यह स्पष्ट है कि जिनकी शैवीदीक्षा नहीं है वे भी उपर्युक्त लिङ्गों के नैवेद्य का भक्षण कर सकते हैं, परन्तु पार्थिवलिङ्ग प्रभृति के, अर्थात् जिनके नाम श्लोकों में नहीं आये हैं, नैवेद्य का भक्षण न करे। शैवी-दीक्षावाले तो सभी लिङ्गों के नैवेद्य का भक्षण करें - यह पहले कहा जा चुका है। ऊपर उद्धृत किये हुए श्लोक में ज्योतिर्लिङ्गों का नैवेद्य सभी को ग्रहण करना चाहिये यह बताया गया है। ज्योतिर्लिङ्गों का निरूपण शिवपुराण, कोटिरुद्रसंहिता, में इस प्रकार किया गया है और उनके नैवेद्यको ग्राह्य तथा भक्ष्य कहा है-
सौराष्ट्र- देश में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जयिनी में महाकाल, ओङ्कार में परमेश्वर, हिमालय में केदार, डाकिनी में भीमशंकर, वाराणसी में विश्वनाथ, गौतमीतट में त्र्यम्बक, चिताभूमि (अन्य लिङ्गों के स्थान की तरह यह भी देशविशेष है-मृतक की चिता नहीं है) में वैद्यनाथ, दारुकावन में नागेश, सेतुबन्ध में रामेश्वर, शिवालय में घुश्मेश -ये द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग हैं, इनके नैवेद्य का ग्रहण तथा भक्षण करना चाहिये । जो इनके नैवेद्य को ग्रहण करते हैं, उनके सारे पाप क्षणभर में भस्म हो जाते हैं।
*श्रीविश्वेश्वर प्रभृति लिङ्गों के नैवेद्यकी ग्राह्यता*
काशी में श्रीविश्वेश्वर - लिङ्ग का नैवेद्य - भक्षण उसके ज्योतिर्लिङ्ग होने के कारण सभी के लिये पुण्यजनक है, यह शास्त्रप्रमाण से सिद्ध है। पहले शिवपुराण -विद्येश्वरसंहिता का जो वचन उद्धृत किया गया है, उसमें देवता तथा सिद्धों के द्वारा प्रतिष्ठित सभी लिङ्गों के नैवेद्य को भक्ष्य बताया गया है। काशी में शुक्रेश्वर, वृद्धकालेश्वर, सोमेश्वर प्रभृति जितने पुराणप्रसिद्ध लिङ्ग हैं, वे सभी किसी-न-किसी देवता या सिद्ध के द्वारा प्रतिष्ठित किये हुए हैं, इसलिये काशी के पुराण - प्रसिद्ध लिङ्गों का नैवेद्य शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर और गाणपत्य-सभी के लिये भक्ष्य है। शिवलिंग के स्नानजनित जल की महिमा को बताते हुए कहा गया है कि -
स्नापयित्वा विधानेन यो लिङ्गस्नपनोदकम्।
त्रिः पिबेत्त्रिविधं पापं तस्येहाशु विनश्यति।। (शिवपुराण, विद्येश्वरसंहिता-22/18)
अर्थात्-‘जो मुनष्य शिवलिङ्ग को विधिपूर्वक स्नान कराकर उस स्नान के जल का तीन बार आचमन करते हैं उनके शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक- तीनों प्रकार के पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।' श्रीविश्वेश्वर के स्नान के जल का विशेष माहात्म्य है-
*जलस्य धारणं मूनि विश्वेशस्नानजन्मनः।*
*एष जालन्धरो बन्धः समस्तसुरदुर्लभः।*
(स्क. पु. काशीखण्ड 41/180)
‘श्रीविश्वेश्वर के स्नान-जल को मस्तक में धारण करना, यह योगशास्त्र में प्रतिपादित जालन्धर - बन्ध के समान पुण्यजनक है और समस्त देवताओं को दुर्लभ है।'
*शिवनिर्माल्य की अग्राह्यता की व्यवस्था*
शिवनिर्माल्य की अग्राह्यता के प्रतिपादक वचन ये हैं -
*अग्राह्य शिवनैवेद्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम्।*
*शालग्रामशिलासङ्गात् (स्पर्शात्) सर्वं याति पवित्रताम्।।*
(शिवपुराण, विद्येश्वरसंहिता-22/19)
*अनर्ह मम नैवेद्यं पत्रं पुष्पं फलं जलम्।*
*मह्यं निवेद्य सकलं कूप एव विनिःक्षिपेत्।।*
*विसर्जितस्य देवस्य गन्धपुष्पनिवेदनम्।*
*निर्माल्यं तद्विजानीयाद् वयं वस्त्रविभूषणम्।।*
*अर्पयित्वा तु ते भूयश्चण्डेशाय निवेदयेत्।* (स्कान्दे सूतोक्तिः, शिवाक पृ. 181)
*धराहिरण्यगोरत्नताम्ररौप्यांशुकादिकान्।*
*विहाय शेषं निर्माल्यं चण्डेशाय निवेदयेत्।।*
(निर्णयसिन्धुः, पृ. 719)
इन वाक्यों से यह सिद्ध होता है कि भूमि, वस्त्र, भूषण, स्वर्ण, रौप्य, ताम्र आदि छोड़कर श्रीशिव के चढ़े हुए पत्र, पुष्प, फल, जल-ये सब निर्माल्य अग्राह्य हैं, इन निर्माल्यों को चण्डेश्वर को निवेदित करना चाहिये। यद्यपि ये निर्माल्य स्वयं अग्राह्य हैं तथापि शालग्राम-शिला-स्पर्श से ग्रहण के योग्य हो जाते हैं।
इन वचनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीशिव के जो निर्माल्य या नैवेद्य चण्डेश्वर के भाग हैं, उनका ग्रहण निषिद्ध है, जो निर्माल्य या नैवेद्य चण्डेश्वर के भाग नहीं हैं, उनके ग्रहण में कोई दोष नहीं है-उनको ग्रहण करना चाहिये । इसलिये शिवपुराण-विद्येश्वरसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि- जिनमें चण्ड का अधिकार है, मनुष्य उन निर्माल्यों या नैवेद्यों का भक्षण न करें-
*चण्डाधिकारो यत्रास्ति तभोक्तव्यं न मानवैः।* (22/16)
वहीं पर यह भी कहा गया है कि जिनमें चण्ड का अधिकार नहीं है, उनका भक्तिपूर्वक भक्षण करना चाहिये-
*चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तितः।।*
| (शिवपुराण, विद्येश्वरसंहिता -22/16)
*शिवनिर्माल्य-निषेध का परिहार*
निम्न प्रकार के लिङ्गों में चण्ड का अधिकार नहीं है, इसलिये इन लिङ्गों के निर्माल्य ग्राह्य तथा भक्ष्य हैं -
*बाणलिङ्गे च लौहे च सिद्धेलिड्गे स्वयंभूवि।*
*प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत्।।*
(शिवपुराण, विद्येश्वरसंहिता -22/17 तथा निर्णयसिंधुः पृ. 720)
अर्थात् - 'बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर), लौह (स्वर्णादिधातुमय) लिङ्ग, सिद्धलिङ्ग (जिन लिङ्गों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है, या जो सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित हैं), स्वयम्भूलिङ्ग (केदारेश्वर प्रभृति)- इन लिङ्गों में तथा शिव की प्रतिमाओं (मूर्तियों ) में चण्ड का अधिकार नहीं है।'
*लिङ्गे स्वयम्भुवे बाणे रत्नजे रसनिर्मिते।*
*सिद्धप्रतिष्ठिते चैव न चण्डाधिकृतिर्भवेत्।।* (निर्णयसिन्धुः पृ. 720)
इस वाक्य में 'रत्ननिर्मित तथा पारदनिर्मित लिङ्ग में भी चण्ड का अधिकार नहीं है' - इतना अधिक कहा गया है। इससे यह सिद्ध हुआ कि इन शिवलिङ्गों के निर्माल्य या नैवेद्य को ग्रहण करने में दोष नहीं है। वर्तमान श्रीविश्वेश्वर - लिङ्ग (काशीविश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग) बाणलिङ्ग (नर्मदेश्वर) हैं। इसलिये उनके स्नानोदक, निर्माल्य तथा नैवेद्यादि में अग्रहण की शङ्का भी ठीक नहीं है।
बाणलिङ्ग के सम्बन्ध में उपर्युक्त क्चन के अतिरिक्त मेरुतन्त्र(चतुर्दश पटल ) में भी विशेष वचन है-
*बाणलिङ्गे न चाशौचं न च निर्माल्यकल्पना ।*
*सर्वं बाणार्पितं ग्राह्यं भक्त्या भक्तेश्च नान्यथा ॥*
*ग्राह्याग्राह्यविचारोऽयं बाणलिङ्गे न विद्यते।*
*तदर्पितं जलं पत्रं ग्राह्य प्रसादसंज्ञया ।।* (शिवांक पृ. 182)।
‘बाणलिङ्ग के विषय में ग्राह्य तथा अग्राह्य का विचार नहीं है। बाणलिङ्ग पर चढ़ाया हुआ सभी कुछ (जल, पत्र आदि) भक्तिपूर्वक प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिये- यह इस वाक्य में स्पष्ट बताया गया है।' शिवपुराण-कोटिरुद्रसंहिता तथा काशीखण्ड (स्कंदपुराण का अंश) प्रभृति ग्रन्थों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि काशी प्रभृति तीर्थों में पुराणप्रसिद्ध जितने भी लिङ्ग हैं, उनमें कोई स्वयम्भूलिङ्ग है तो कोई सिद्धलिङ्ग है। जो लिङ्ग भक्तों के अनुग्रह के लिये स्वयं प्रकट हुए हैं, वे स्वयम्भूलिङ्ग हैं, जो लिङ्ग सिद्ध महात्माजनों द्वारा प्रतिष्ठित या उपासित हैं वे सिद्धलिङ्ग हैं- वे सभी पुराणप्रसिद्ध हैं। ऊपर उद्धृत किये हुए शिवपुराण के वचन के अनुसार पुराणप्रसिद्ध इन लिङ्गों में चण्ड का अधिकार नहीं है और उनके निर्माल्य या नैवेद्य के ग्रहण में कोई दोष नहीं है, अपितु पूर्व उद्धृत शिवपुराण -विद्येश्वर संहिता के वाक्यों के अनुसार उन लिङ्गों के नैवेद्य का ग्रहण पुण्यजनक है।
*शिवनिर्माल्य-निषेध की विशेष व्यवस्था*
पूर्वप्रदर्शित जिन लिङ्गों में चण्ड का अधिकार है उनके विषय में भी विशेष व्यवस्था है जो इस प्रकार है-
*लिङ्गोपरि च यद् द्रव्यं तदग्राह्य मुनीश्वराः।*
*सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिगस्पर्शबाह्यतः।।*
(शिवपुराण, विद्येश्वरसंहिता -22/20)
*‘जो वस्तु लिङ्ग के ऊपर रखी जाती है, वह अग्राह्य है। जो वस्तु लिङ्गस्पर्श से रहित है अर्थात् जिस वस्तु को अलग रखकर श्रीशिवजी को निवेदित किया जाता है - लिङ्ग के ऊपर नहीं चढ़ाया जाता -वह अत्यन्त पवित्र है। लिङ्गार्चनतन्त्र के द्वादश पटल में भी शिवलिङ्ग के ऊपर चढ़ायी हुई वस्तुओं को अग्राह्य बताया गया है -
*यत्किञ्चिदुपचारं हि लिङ्गोपरि निवेदयेत्।*
*तन्निर्माल्यं महेशानि अग्राह्यं परमेश्वरि।।* (शिवाक पृ. 182)
- इन वाक्यों के साथ तुलना करने से पता लगता है कि जितने शिवनिर्माल्य के निषेधक वाक्य हैं, सभी लिङ्ग के ऊपर चढ़ायी हुई वस्तुओं का निषेध करते हैं।
*शिवनिर्माल्य की व्यवस्था का सारांश*
समस्त सामान्य वचनों के साथ विशेष वचनों की एकवाक्यता करने से यह सिद्ध होता है कि-नर्मदेश्वर - लिङ्ग, धातुमय-लिङ्ग, रत्न-लिङ्ग, पुराणप्रसिद्ध लिङ्ग-इन लिङ्गों के ऊपर चढ़ाये हुए निर्माल्य का ग्रहण तथा भक्षण करना शास्त्रविधिसम्मत है। अन्य लिङ्गों के ऊपर चढ़ाये हुए नैवेद्य तथा निर्माल्यों का ग्रहण करना शास्त्रसम्मत नहीं है। शिवनिर्माल्य-ग्रहण तथा शिव-नैवेद्य भक्षण के निमित्त जो प्रायश्चित्त शास्त्र में कहे गये हैं, वे भी इन निषिद्ध नैवेद्यों या निर्माल्यों के विषय में ही हैं। जिन शिव-नैवेद्य तथा शिव-निर्माल्य का ग्रहण और भक्षण शास्त्रविधिसम्मत है, उनके ग्रहण तथा भक्षण के निमित्त प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। निषिद्ध कर्मों के लिये शास्त्रों में प्रायश्चित्त कहे गये हैं, विहित कर्म करने से प्रायश्चित्त की आवश्यकता नहीं है। पापों के हटाने के लिये प्रायश्चित्त किया जाता है। विहित कर्म के अनुष्ठान से पाप नहीं होता, अपितु विहित कर्म के अनुष्ठान न करने से, निषिद्ध कर्म के आचरण और इन्द्रियों का निग्रह न करने से पापों की उत्पत्ति होती है, उन्हीं पापों की शुद्धि के लिये शास्त्रों में प्रायश्चित्त का उपदेश किया गया है -
*विहितस्याननुष्ठानान्निन्दितस्य च सेवनात्।*
*अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां नरः पतनमृच्छति।।*
*तस्मान्नेह कर्तव्यं प्रायश्चितं विशुद्धये।*
*एवमस्यान्तरात्मा च लोकश्चैव प्रसीदति।।*
(याज्ञवल्क्यस्मृति 3/219-220, शिवाक पृ. 182 पर उद्धृत)
निर्णयसिन्धुः के तृतीय परिच्छेद के पूर्वभाग में भी श्रीशिवनिर्माल्य के विषय में इसी प्रकार की व्यवस्था है। नर्मदेश्वरलिङ्ग, धातुमयलिङ्ग, रत्नलिङ्ग तथा स्वयम्भू और सिद्धलिङ्ग (जो पुराणप्रसिद्ध लिङ्ग हैं)-इन लिङ्गों में चण्ड का अधिकार न होने से इनके ऊपर चढ़ाये हुए नैवेद्य तथा निर्माल्य सभी भक्ष्य तथा ग्राह्य हैं, यह पहले कहा जा चुका है। जो वस्तुएँ शिवलिङ्ग पर चढ़ायी नहीं गयी हों, किंतु किसी भी लिङ्ग को निवेदित की गयी हों, वे वस्तुएँ शैवी-दीक्षावाले मनुष्यों के लिये ग्राह्य हैं। जिन्हें शैवी दीक्षा नहीं है उनके लिये पार्थिवलिङ्ग के निवेदित को छोड़कर और सभी लिङ्गों को निवेदित की हुई वस्तुएँ तथा शिवप्रतिमा को निवेदित किये हुए प्रसाद ग्राह्य हैं। जिन शिवनिर्माल्यों के लिये निषेध है, वे भी शालग्राम-शिला के संसर्ग से ग्राह्य हो जाते हैं, यह शास्त्रमर्यादा है।
*संक्षेप में शिवनिर्माल्य संबंधी निम्नलिखित निर्णय शास्त्र-सम्मत हैं-*
1. जहाँ कहीं भगवान् शंकर की साकार मूर्ति (हाथ-पैरवाली) बनी हो, उसका प्रसाद ग्रहण किया जाना चाहिये। दूसरे देवताओं के प्रसाद के समान वह पवित्र है।
2. किसी भी धातु से बने हुए शिवलिंग के ऊपर चढ़ा हुआ प्रसाद सर्वथा पवित्र है, वह ग्रहण करने योग्य है। यदि शिवलिंग किसी दूसरी वस्तु से बना हो और उसके ऊपर धातु का कलेवर चढ़ा हो, जैसा कि अनेक स्थानों पर पाया जाता है, तो उस पर चढ़ा हुआ प्रसाद भी पवित्र होता है।
3. जो प्रसाद शिवलिंग के ऊपर नहीं चढ़ा है, सामने रखकर भोग लगाया गया है, वह प्रसाद पवित्र है, उसे ग्रहण किया जाना चाहिये। जो पदार्थ शिवलिंगों के ठीक ऊपर रख दिया गया है केवल प्रसाद का उतना ही अंश त्याज्य है। किसी पत्ते पर अथवा बर्तन में मूर्ति से थोड़ा दूर रखकरजो भोग लगाया जाता है वह किसी भी शिवलिंग को लगाया हुआ प्रसाद ग्रहण करने योग्य है।
4. द्वादश ज्योतिर्लिंग, अष्टमूर्तियों के लिंग, स्वयंभूलिंग (जो स्वयं प्रकट हुए हों), किसी साधु-महात्मा या सिद्धों द्वारा स्थापित लिंग और नर्मदा के जल में से प्राप्त हुआ बाणलिंग (नर्मदेश्वर) - इनके ऊपर चढ़ा हुआ प्रसाद भी पवित्र होता है। इनमें चण्ड का कोई भाग नहीं होता।
5. अब ऊपर के सब प्रकार के शिवलिंगों को छोड़ दें तो साधारण पत्थर से गढ़े हुए लिंग, नर्मदा के अतिरिक्त किसी दूसरी नदी में से प्राप्त लिंग अथवा केशर के अतिरिक्त दूसरे पदार्थों जैसे मिट्टी, चीनी आदि के बने शिवलिंगों पर जो प्रसाद चढ़ाया गया हो, उसे किसी को भी ग्रहण नहीं करना चाहिये। इसे मन से चण्ड को अर्पित करके किसी जलाशय अथवा प्रवाहित जल में डाल दिया जाना चाहिये।
6. केशर - चन्दन मिला करके जो लिंगमूर्ति बनती है, उसपर चढ़ा हुआ प्रसाद ग्रहण किया जा सकता है।
7. यदि शिवलिंग गण्डकी नदी में पाया गया हो अथवा शिवलिंग के समीप शालिग्राम भी विराजते हों तो शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद ग्रहण करने योग्य है।
8. किसी भी शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद यदि शालिग्रामजी को स्पर्श करा दिया जाता है तो वह ग्रहण करने योग्य हो जाता है। भगवान् शंकर की लिंगमूर्ति पर चढ़ाया हुआ प्रसाद, चाहे वह किसी भी लिंग पर चढ़ाया गया हो, शालिग्रामजी को अर्पित किया जा सकता है; क्योकि भगवान् विष्णु परम शैव हैं और वैसे ही शिव का प्रसाद ग्रहण करते हैं जैसे हनुमानजी श्रीरघुनाथजी का प्रसाद ग्रहण करते हैं। अतएव शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद शालिग्रामजी को अर्पित करने से वह ग्रहण करने योग्य हो जाता है क्योंकि फिर वह भगवान् विष्णु का प्रसाद हो जाता है।
*शिवनिर्माल्य-धारण के प्रायश्चित्त का निर्णय*
‘प्रायश्चित्तविवेक', 'तिथितत्त्व' तथा 'निर्णयसिन्धुः' आदि ग्रन्थों में यह वचन उद्धृत है-
*स्पृष्ट्वा रुद्रस्य निर्माल्यं सवासा (वाससा) आप्लुतः शुचिः।* (शिवांक पृ. 183)
अर्थात् - रुद्र के निर्माल्यको स्पर्श करनेवाला पुरुष सचैलस्नान से शुद्ध होता है। रघुनन्दन भट्टाचार्य ने तिथितत्त्व - शिवरात्रिप्रकरण में इस सामान्य वचन की अन्य विशेष वचन के साथ एकवाक्यता की है -
*निर्माल्यं यो हि मद्भक्त्या शिरसा धारयिष्यति।*
*अशुचिर्भिन्नमर्यादो नरः पापसमन्वितः।।*
*नरके पच्यते घोरे तिर्यग्योनौ च जायते।।*
(स्कन्दपुराण, शिवाक पृ. 183 पर उधृत)
- इस वचन में जो अशुचि- अवस्था में शिवनिर्माल्य को धारण करते हैं, उनके लिये पाप कहा है। इस वाक्य के अनुरोध से पूर्वप्रदर्शित सामान्य वाक्य भी अशुचिविषयक समझना चाहिये।
इन दोनों वाक्यों को मिलाकर यह अभिप्राय निकलता है - अशुचि- अवस्था में शिवनिर्माल्य को नहीं धारण करना चाहिये। जो अशुचि- अवस्था में शिवनिर्माल्य को धारण करता है वह पापी होता है, इस पाप की शुद्धि के लिये सचैलस्नान (वस्त्रसहित) प्रायश्चित्त है। स्नानादि से शुद्ध होकर शिवनिर्माल्य को धारण करने से ब्रह्महत्या - जैसे पातक नष्ट हो जाते हैं - यह शिवपुराण वि. सं. 22/15 तथा स्कन्दपुराण में कहा गया है-
*ब्रह्महापि शुचिर्भूत्वा निर्माल्यं यस्तु धारयेत्।*
*तस्य पापं महच्छीघं नाशयिष्ये महाव्रते।।* (निर्णयसिंधुः पृ. 720)
शिवनिर्माल्य-धारण की इस विधि के साथ अविरोध सम्पादन करने के लिये इस विधि के अनुरोध से भी पूर्वोक्त शिवनिर्माल्य-धारण का प्रायश्चित्त अशुचि के विषय में ही समझना उचित है। अर्थात् अशुचि अवस्था में निर्माल्य का स्पर्श करनेवाला ही प्रायश्चित्त का भागी होगा, अन्य कोई नहीं।
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