मित्रों ! यह बात मैं नहीं वरन वैदिक शास्त्र कहता है कि जो लोग अपने पितरों का श्राद्ध , पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ करते हैं उन्हें न केवल सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं , बल्कि मृत्यु के पश्चात भी उन्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है ! यूँ तो हमारे सारे रीति – रिवाज़ शुद्ध विधि – विधान मांगते हैं , लेकिन श्राद्ध की विधि करने में पूर्ण श्रद्धा – विश्वास के साथ शास्त्र सम्मत विधि – विधान और नियमों का पालन कठोरता से करना होता है ! आपने देखा होगा श्राद्ध सम्बन्धी शिविरों का आयोजन कभी भी , कहीं नहीं होता है ! विद्वान द्वारा सदैव श्राद्ध की विधि घर आकर संपन्न करायी जाती है , वह भी श्राद्ध करने वाले के निवास स्थान पर ! नियम है कि श्राद्ध सदैव घर पर या शास्त्रों द्वारा नियत स्थानों जैसे – गंगा का तट – कुरुक्षेत्र – पेहवा – बद्री नाथ – त्र्येम्ब्केश्वर – गया जैसे पूर्व निश्चित स्थानों पर कराने की प्राचीन परम्परा है ! अपने निवास के अतिरिक्त कहीं और पिण्डदान – तर्पण करने से दोषों की शांति तो होती नहीं वरन भीषण दोष और लग जाता है ! हम तभी पिण्डदान – तर्पण का कार्यक्रम गंग नहर ( मुरादनगर उ. प्र. )के किनारे रखते हैं !
जो विद्वान पिण्डदान – तर्पण का कार्यक्रम मंदिर – धर्मशाला , खुले मैदान या अपने निवास स्थान पर रखते हैं , वह यजमान का हित नहीं , अहित ही अधिक करते हैं ! पहले से ही भीषण दोषों के परिणाम को भोगते हुए व्यक्ति के दोषों में गलत विधि के कारण और वृद्धि हो जाती है ! शास्त्रों और विद्वानों का मत है श्राद्ध करने में दिखावा कभी नहीं करना चाहिए , बल्कि अपनी आर्थिक स्थिती के अनुसार ही श्राद्ध में दान आदि करना चाहिए ! मानलें मैं श्राद्ध की विधि कराता हूँ तो इसका यह अर्थ बिल्कुल भी नहीं है की मैं स्वयं नि:शुल्क अपनी श्राद्ध की विधि करलूं ! नहीं मुझे भी किसी योग्य विद्वान को सम्मानपूर्वक आमंत्रित करके शुद्ध विधि – विधान के साथ श्राद्ध संपन्न करना चाहिए ! यथा योग्य दक्षिणा – वस्त्र – भोजन आदि देना चाहिए तब ही श्राद्ध विधि का सुफल प्राप्त होगा ! नि:शुल्क विधि से श्राद्ध करने वाला और कराने वाला दोनों ही दोष – अपयश और पाप के भागी होते हैं ! श्राद्ध कर्म करते हुए कभी भी बासी अथवा अखाद्य पदार्थ नहीं परोसने चाहिए ! इन दिनों में किसी भी प्रकार का शुभ कार्य करना निषिद्ध माना गया है ! बाल कटवाना – दही बिलोना – नयी देव प्रतिमा की प्रतिष्ठा करना – नया वस्त्र खरीदना – भवन में पुताई कराना – विवाह करना या विवाह की बात चलाना – मुहूर्त करना – कुआँ खुदवाना – श्राद्ध पक्ष में घर से बाहर जाकर किसी अन्य स्थान पर श्राद्ध की विधि करना पूर्णत: वर्जित है !
जन्म देने वाले पूर्वज जैसे दादा – दादी , माता – पिता की मृत्यु के प्रथम वर्ष में कभी भी श्राद्ध नहीं करना चाहिए ! पितृ कार्य के लिए दोपहर का समय सबसे अच्छा समझा जाता है , क्योंकि पितरों के लिए मध्यान्ह ही भोजन का समय है ! पूर्वाह्न में , सांयकाल में , रात्रि में , चतुर्दशी तिथि और परिवार के किसी सदस्य या स्वयं के जन्मदिन को श्राद्ध विधि नहीं करें ! सबसे महत्त्वपूर्ण बात है श्राद्ध में बुलाये गए ब्राह्मण पवित्र और वेद को जानने वाले ही होने चाहिए ! यहाँ ब्राह्मण के लिए भी नियम है ब्राह्मण को श्राद्ध का भोजन करने वाले ब्राह्मण को उस दिन दुबारा भोजन कभी नहीं करना चाहिए अन्यथा वह कीड़े – मकोड़े की योनी में जन्म लेता है !
अब मैं आपके समक्ष मूल विषय श्राद्ध ना करने से किस प्रकार की हानि संभव है ? इस पर चर्चा करूँगा ! हमारे वैदिक धर्मशास्त्रों ने श्राद्ध न करने से जिस भयानक कष्ट का वर्णन किया है , वह अत्यंत मार्मिक है ! यह सुविदित है कि मृत प्राणी इस महाप्रयाण में अपना स्थूल शरीर भी अपने साथ नहीं ले जा सकता है तो इस महाप्रयाण यात्रा में अन्न – जल भला कैसे साथ ले जा सकता है ? उस समय उसके परिजन श्राद्ध विधि से जो कुछ देते हैं , वही उसे मिलता है ! आईये ! थोड़ी चर्चा मरणोपरांत पिण्डदान की व्यवस्था पर भी करते हैं ! सर्वप्रथम शवयात्रा के अंतर्गत छह पिण्ड दिए जाते हैं , जिससे भूमि के अधिष्टात देवताओं की प्रसन्नता तथा भूत पिशाचों द्वारा होने वाली बाधाओं के निराकरण जैसे उद्देश्य सिद्ध होते हैं ! इसके साथ ही दशगात्र में दिए जाने वाले दस पिण्डों के द्वारा जीव को अतिवाहिक सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति होती है !
यह तो मृत शरीर की महायात्रा के प्रारम्भ की बात हुई ! अब आगे के मार्ग में उसे भोजन जल अन्न आदि की आवश्यकता पड़ती है , जो पितृपक्ष में दिए जाने वाले पिण्डदान और श्राद्ध में दिए जाने वाले अन्न से उसे प्राप्त होता है ! मानलो अगर पुत्र पोत्र आदि सगे सम्बन्धी उसे ये सब न दें , तो भूख प्यास से उसे वहां बेहद कष्ट होता है ! मृत आत्मा का यह कष्ट परिजनों के सामने अनेक दोषों के रूप में सामने आता है ! सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो परिजन शुद्ध विधि से , शांतिपूर्वक और श्रद्धा के साथ श्राद्ध करता है , वह समस्त पापों , शापों , तापों से मुक्त होकर इस संसार में सुख भोगता है और अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है ! इस संसार में श्राद्ध करने वाले के लिए श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याण कारक उपाय नहीं है ! इस बात की पुष्टि मह्रिषी सुमन्तु द्वारा भी की गयी है !
मैंने अनुभव से पाया है कि कुछ त्रुटियाँ परिजन अनजाने में कर देते हैं और कुछ त्रुटियाँ जान कर भी कर देते हैं ! कुछ लोग तर्पण में लोहे से बने पात्र का प्रयोग करते हैं , स्मरण रहे तर्पण में लोहे से बना पात्र सर्वथा वर्जित है ! श्राद्ध में श्रद्धा का ही महत्व है ! कुछ परिजन धन के अभिमान में श्रद्धा का त्याग कर देते हैं ! यह गलत है ! कुछ परिजन समय और श्रम बचाने के चक्कर में बाज़ार से बना बनाया भोजन ब्राह्मण को दे देते हैं ! यह प्रथा भी गलत है ! कुछ परिजन अत्यधिक आधुनिक होते हैं , वह समय , धन और श्रम बचाने के उद्देश्य से उन स्थानों पर जाते हैं जहाँ इस प्रकार का आयोजन हो रहा हो , यह कृत्य सर्वथा निंदनीय और शास्त्र के विरुद्ध है ! आप ऐसा बिल्कुल ना करें ! श्राद्ध करते समय भोजन से पहले पंचबलि अर्थात गाय – कुत्ते – कोए – देवता और चींटी के लिए ग्रास अवश्य निकालें ! ?
Leave a Reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *